विरह रस व्यापे काहे विरह रस व्यापे राधिका बीत गई रतिया सारी भोर भये तक इंतजार कर कैसे बीती रैन बेचारी ! पलक ना झपकी रैन बीत गई छाय गई उषा रतनारी सवितु आये जाये यामिनी जिया संभालो राधे प्यारी ! दिनकर आगमन .विदा दिवाकर रजनी जावन की तय्यारी कछु तो सुध लो वृष भानु सुता तुम अब ना अईंहै निष्ठुर बनवारी ! आते तो सखी जाते काहे काहे तोसे प्रीत लगाते प्रीत लगाते वाय निभाते यूं पल मैं ना बिसराते ! उठो सखी अब रैन बीत गई रैन के संग ही बात गई लम्पट .निपट अनाड़ी , ढोंगी से नाहक ही प्रीत भई ! वो भये द्वारिकाधीश सखी राजा महाराजा बड़े बने हम जैसी उन्हें बहुत मिलेगी तासे हमकू बिसर गये ! तीन लोक के स्वामी कान्हा हम ठहरी ग्वालिन छोटी कहाँ याद रहेंगे हम तुम वोतो ठहरे त्रिपुरारी ! एक बात सांची कहूँ कान्हा नीक नहीं किन्हीं मोसे प्रीत लगा कर भूल गये जा नाय मिलूंगी अब तोसे ! भर उसाँस राधे जब लीन्ही अंखिया नीची कर लीनी भूले से आंसू ना दीखे धरा ओर मुख कर लीनी ! मधुबन भीतर विरह व्याप गयो खग , मृग , वृंद सभी सूखे छीजत छीजत कृष भई राधे श्वास हिया पजरन लागे ! एक अरज सुन लो मेरी