बाबूजी ...
बाबूजी सघन वृक्ष के जैसे
माँ केसर की क्यारी
माँ के माथे की गोल सी बिंदी
बाबूजी से रतनारी !
बाबूजी प्यास पर्याय है
भूख का सतत उपाय
उड़ते पंखों का खुला आकाश है
थके तो कांधे बनते खाट !
बहते आंसू का रूमाल वो
हँसी का एक खजाना वो
हर प्रश्न का उत्तर से वो
भानुमति का पिटारा वो !
वो होते" विश्वास "टहलता
घर द्वारे के भीतर
नहीं रहे तो " काश "घुमड़ता
अब मन के ही अंदर !
एक शब्द पर्याय अनेकों
जब चाहे जो लख लो
बाबूजी के रूप रंग मैं
बस अब यादों को चख लो !
डा इन्दिरा ✍
वाह्ह्ह...क्या खूब..भावपूर्ण ,हृदयस्पर्शी रचना प्रिय इन्दिरा जी...।👌👌👌
ReplyDeleteस्नेहिल आभार
Deleteमीता हृदय के गहरे उद्गार पिता को समर्पित आपकी सुंदर भावपूर्ण पंक्तियों पर मेरे कुछ समर्पित अल्फाज़...
ReplyDeleteदेकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम है तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं
देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हो नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं
देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हो नीलाकाश
अब प्राण वात कहां से पाऊं
देकर मुझको आधार महल
कहां गये हो धराधर
अब कदम कहां जमाऊं।
क्या बात है...
Deleteदेकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम है तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं
...शानदार👏👏👏👌👌👌
सत्य मीता ....शुक्रिया
Deleteदुनियाँ से जाने वाले जाने चले जाते है कहाँ
कोई ढूंढे कोई कैसे नहीं कदमों के निशा !
पितृ दिवस की शुभकामनाएँँ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर हृदयस्पर्शी शब्द..
स्नेह सिक्त आभार पम्मी जी
Deleteएक शब्द पर्याय अनेकों
ReplyDeleteजब चाहे जो लख लो
बाबूजी के रूप रंग मैं
बस अब यादों को चख लो !
...अवर्णनीय छवि है इस कविता में, मानस में अद्भुत रसों को संचरित करती इस कृति की रचयिता-लेखनी के प्रति श्रद्धा भाव दीदी🙏🙏🙏
अति अति स्नेहिल आभार अमित जी ..पितृ का नेह एक अनमोल धरोहर होती है फिर मेरे बाबूजी मेरे ....पितृ .गुरु माता और परम सखा जो जितना लिख दूँ कम है ...जो जैसी हूँ अच्छी बुरी सब उनका ही कृत है ! जीवन पर्यंत मेरा मस्तक उनके आगे केवल नत है !
Deleteनमन
वाह!!बहुत खूब ।।
ReplyDeleteशुक्रिया शुभा जी
Deleteअवर्णनीय, अनुपम, सुप्त भावों को उद्वेलित करती आपकी रचना को नमन सखी🙏
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