Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2018

अखण्ड सुहाग

अखण्ड सुहाग .. प्रियतम तेरे कारने सोलह किया शृंगार मैहदी .बिछिया , पायल ' कंगना पहना नवलखा हार ! पहना नवलखा  हार नैन काजल कजरारे माथे लगी सिंदूरी बिन्दियाँ होट भये रतनारे ! चाल चले गज गामिनी चुनर लाल सजाये झाला देते कर्ण फूल प्रियतम को पास बुलाये ! पूर्ण रूप उजास सम माथे मांग सिन्दूर साजन को निरखे बिना व्रत ना होवे पूर्ण ! करवा चौथ के दिन करे हर गोरी अरदास चंद्र कला ज्यों ज्यों बढे वैसो , मेरो बढे सुहाग ! मेरो बढे सुहाग सुहागन सदा कहाऊ जी साथ परनिजी बाबुल वाकू सातों जन्म में पाऊ ! अखण्ड सुहागन में रहूं सदा जिये भरतार गौरा माँ से मांग रही अखण्ड सुहाग वरदान ! डा इन्दिरा  गुप्ता स्व रचित

मसि

मसि ... मसि बहती हिय पन्नों पर कहीं कम कहीं ज्यादा ! पन्ना गीला तो हो जाता कहीं कम कही ज्यादा ! मन भी दुखा उम्र भर कहीं कम कही ज्यादा सन्नाटा सा भी पसरा है कहीं कम कही ज्यादा ! हाथ लकीरें गहरी है कही कम कही ज्यादा ! ठोकर दिल ने खाई निरंतर कही कम कही ज्यादा ! जाने कितने मौसम आये कही कम कही ज्यादा ! जाने क्या क्या लिखना चाहूँ कही कम कही ज्यादा ! मसि मेरी सूखी रह जाती कही कम कही ज्यादा ! डा इन्दिरा .✍ स्व रचित

जीवन / संतुलन

जीवन एक संधान ! मन संतुलन राखिये सुख दुख एक समान हर्ष विषाद एक तराजू खुद को वस्तु मान ! प्राणी जीवन एक संधान ........ हर पल हर क्षण तुल रहे तुल रहे है  बिन  भाव तोला माशा जिंदगी नाप सके तो नाप ! प्राणी जीवन एक संधान ..... कदम जिंदगी मैं सदा फूंक  धरो ही जाय बिना बिचारे जो करें सम पाछे पछताय प्राणी जीवन एक संधान ..... डा इन्दिरा .✍ स्व रचित

स्व

स्व ... स्व है  प्रज्ञा स्व है  संज्ञा स्व है एक मर्यादा स्व बिन जाने कैसा जीना स्व की ना करो अवज्ञा ! स्व ईश है स्व कर्म है स्व धर्म है शाश्वत स्व बिन जाने गति नहीं है स्व सदा रहे युगांतर ! डा इन्दिरा गुप्ता स्व रचित

कान्हा की पाती

कान्हा की पाती .... सगरी मोपे दोष धरो हो मैं मथुरा आके भूल गयो बिसर गयो मोकू वृंदावन मधुबन नाही याद रहो ! कभी नाही ये सोचो राधे तुम सब साथ में यहाँ  इकलौ कैसे आयो हूँगा छोड़ के तुम सब का वो साथ सुहानौ  ! एक कदम आगे रखता था दुई पीछे हो जाते थे हिय मेरा छलनी होता था नैन नीर भर आते थे ! जिस पेड़ तले बैठी हो राधे मन उसी पेड़  पर टंगा हुआ प्यासी है अतृप्त आत्मा जैसे तैसे कर जी रहा ! हर गली हर चौबारा नैनन में ही डोल रहा मात यशोदा नंद बाबा का लाड अब यहाँ कहाँ रहा ! विरह अग्नि में तपता हूँ पर कर्म राह तो चलनी है तुम तो रोकर व्यथा कहो पर मुझको सहन ही करनी है ! जिसकी जैसी जहाँ चाकरी वैसा ही अनुशासन है नारायण का काम मिला तो वैसा ही कठिन आचरण है ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍ स्व रचित

शरद ऋतु

शरद ऋतु .. शरद ऋतु की शरद चांदनी चन्द्र किरण भी सोहे आज बैठे गवाक्ष मैं सुध बुध खोये अद्भुत सोहे राधेश्याम ! राधा आनन पूर्ण चन्द्र सो संग सोहे श्याम घटा से श्याम पूर्ण उजास फैलो है धरा पर धरा है गई स्वर्ग समान ! शरद चंद्र भी पूर्ण रूप ले खुल कर छाय गये नभ माय निरख रहे अलौकिक जोड़ी बिसर गये निज सगरे काम ! मुक्ता मणि सी शीतल चाँदनी झर झर बरसी पूरी रात खग मृग वृंद जड़वत है गये वर्णि ना जाये शोभा आज ! लोक अलोक को भेद भूल गये सरस भाव सम भाव बहे देह विदेह सभी विस्मृत था मग्न निमग्न सब विभोर भये ! डा इन्दिरा  गुप्ता .✍ स्व रचित

विजय दशमी

विजय दशमी .. कैसे कहूँ शुभ हो  दशहरा अभी तो रावण मरा नहीं सीता कब आजाद हुई है ग्रह रावण बन्दी है अभी ! कहाँ राम विजय पाये है लक्ष्मण मूर्छित अभी वही संजीवनी बूटी लेकर लौटे हनुमान भी आये नहीं अभी ! अट्टहास रावण का व्याप्त है रुदन अभी नभ गूंज रहा विजय दशमी भ्रमित जाल सा भ्रम केवल फैला सा रहा ! सतयुग में एक सीता थी इस युग में घर घर सीता राम नहीं किसी भी घर में हरण ना हो तो क्या होता ! आँख का पानी मर गया सब का हर मन रावण भाव रहे अग्नि परीक्षा तब तो होगी सीता पहले जीवित तो रहे ! झूठ का रावण कब जलता है कब जलता पाखंड ज्यों काटो त्यों त्यों बढे वैमनस्य का अहि रावण ! परिवर्तन बिन आये ना दशहरा ना कुविचार रावण मरता ना सीता पुनि वापस आती जब धोबी जैसे हो वक्ता ! शुद्ध विचार और शुद्ध आचरण गहन मनन और चिंतन हो सिया साथ राम लौटेगे मने तभी विजय दशमी हो ! ! डा इन्दिरा गुप्ता स्व रचित 19 oct  2018

नारी उत्पीड़न / कानून

नारी उत्पीड़न / कानून .. कितना रोका और बढाया नारी के उत्पीड़न को कहे इन्दिरा हाथ बढ़ा खोलो कानूनी वातायन को ! मोटे मोटे संविधानौ में लाखों धारायें बनवाते धाराओं की द्फाओ में भोली नारी को फंसवाते ! समय आने पर ये धारायें कनून को दफा कर देती पुरुष के अहम समुद्र में नारी को काल तिरोहित करती ! जिव्हा होगी मूक और आँखें स्थिर हो जायेगी देखोगे जब धक धक जलती ! धारा दफा तदूंरो में  !  नारी और कानून का नाता  कैसे होगा पोषित  कानून बनाने वाले कर में जब कलम नहीं परिष्कृत ! कानून नहीं सजीव सी वस्तु जिसमें एहसास समाहित हो कागज की बेजान किताबें नारी क्यूँ ना भस्मित हो ! रूप कवर या भंवरी देवी नैना देवी या निर्भया काण्ड जिस घर में भी जा कर देखा हर घर में जलते अरमान ! जागो पुरुषों धरो ध्यान तुम हनन हो रहा स्वयं तुम्हारा मातृत्व के बढ़ते अभाव में कहाँ बचेगा अस्तित्व तुम्हारा ! बदलो ऐसा कानून जहाँ व्यभिचारी आश्रय पाते है सरे आम तेजाब फैंकते बेगुनाह कहलाते है ! डा इन्दिरा .✍ स्व रचित 10  .11. 98

हाहाकार

हाहाकार .. कर बद्ध प्रर्थना सुनो मात तुम कड़वा सच सुनलो तुम तात बहना की विनती है भय्या नहीं करो मेरा बलिदान ! तेरी कोख का में भी मोटी और अंखियों की ज्योति स्नेहिल धागा तेरे प्रेम का क्यूँ कहलाती फिर अभिशाप ! में भी दीपक तेरे वंश का करो ना खण्डित मेरा गात पूर्ण सही स्नेह  मिले तो में बन जाऊं नया प्रभात ! जरा ध्यान से निरखो मुझको मत सोचो बस पाना त्राण नहीं बेजान मूक सी वस्तु मुझमें भी संचरित है प्राण ! हवन सामग्री बनूं यज्ञ की "इन्दिरा"करती है प्रतिकार करो इलाज कोढ़ी समाज का वर्ना होगा हाहाकार ! डा इन्दिरा .✍ स्व रचित

शमशान

शमशान देकर बलि दानव  दहेज को नहीं कहो तुम दान मात तात तुमने ही क्यूँ कर लिये कली के प्राण ! नहीं विवशता ये तो कोई नही कहो ये भाग्य झूठे दम्भ झूटी गरिमा पर क्यूँ चढ़ते परवान ! ना सदा बोझ है बेटी तेरा ना बेटा सदा महान दो है नेत्र दोनों से बहते आँसू एक समान ! हाय समस्या है ये कैसी जिसका ओर ना छोर हमीं बढ़ाते और समझते इसमें अपनी शान ! कितनी बेबस आई है "इन्दिरा " जलते देखें सब अरमान जिस घर की खिड़की से झांका उस घर में देखा शमशान ! डा इन्दिरा .✍ 8 sep 1095 स्व रचित

पत्थर का माँ / जीवित माँ

पाथर  की माँ / जीवित माँ पाथर की माता ला रहे खुश होकर घर आज हंसी खुशी से सजा रहे माता का  दरबार ! द्वार खोल खड़ा माँ खातिर पूजन की करली तय्यारी षटरस व्यंजन पायस मीठा धूप दीप धरे भारी !  ! पर .... घर के पिछवाड़े जिंदा माँ को भूखा प्यासा मार रहे बूढ़ी हड्डियाँ कांप रही आंखों में पढ़ गये जाले ! जन्म दात्री को भूल के पगले पाथर की माँ भजना चाहे अज्ञानी समझा क्या माँ को जो ऐसे घर आना चाहे ! घर के पूत कवारे डोले पाडोसी  के हो फेरे उल्टी रीत छोड़ दे मानव माँ  की कदर तो तू कर ले ! लक्ष्मी , दुर्गा माँ सरस्वती सब का उसमें  है निवास जिसने तुझको जनम  दिया सबसे पहले वो है  खास ! डा इन्दिरा  .✍ स्व रचित

शबनमी कतरा

शबनमी कतरा ... जज्बाते रंग कुछ बिखर रहे है एहसासे चिलमन भिगो रहे है पिघल रही है सिंदूरी वादी इन वादियों में हम खो रहे है ! सिमटी है सहर मेरे आशियाँ में गुले गुलज़ार से हम हो गये है शफ्फाक चादर बिछी हो कोई खिली चाँदनी से हम हो गये है ! रौशन है हर शै नजारा हसी सा महकी फिजा आशियाँ खुशनुमा सा उतर आया चाँद आगोश में मेरे कतरा हो जैसे कोई शबनमी सा ! डा इन्दिरा .✍ स्व रचित