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Showing posts from January, 2019

तेरा शहर

तेरा शहर .... रूठने मनाने की हद से बाहर हो गये अब तो , ताबीज मन्नत और तिजारत सब बेवफा हो गये अब तो , ये बेरुखी ये तिश्नगी ये बेचारगी अब और नही , तू नही तेरा शहर नही तेरी कूचाये खाक अब कुछ भी नही ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता

नारी

नारी .... शक्ति रूपा या चण्डीका भक्ति रूपा अभी नन्दन तू , भू दोलन आन्दोलन रक्षित रूप सहस्त्र कर तू , सव्य धारिणी भय हारीणी अवलोकन और विमोचन तू , नूतन किसलय रूप चन्द्रिका अमि कलश कमलदल तू , नर्तन गायन और प्रलयंकर शिव शक्ति ताण्डव हैं तू , चिर सृजन भाव अंकुरण चाव हृदय भाव विहंगम तू  ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता

बत रस

बत रस पर निन्दा रस भाव की बड़ी ही अदभुत बात कहत सुनत बोलत सभी मन अति आनंद समाय  चाकी जैसी रसना चले सरस भरी रस खान बत्तीस दांतो मध्य भी चुप ना रहे वाचाल ! रसना अति चालाक हैं रखो इसे धर ध्यान कह कहाय भीतर गई जूती सर  पड़ी जाय ! रसना ऐसी षोडषी करे बातन को शृंगार बिन लाली काजर बिना मुख्य मैलो करी जाय ! मुख रसना गर ना रहे जीवन व्यर्थ समान सारे रस रसना भरे बत रस सरस सुजान ! डॉ इन्दिरा गुप्ता

पंख

पंख पँख बांध कर तोलते तुम मेरे अरमान दम हैं तो खोल दो बन्धन भरने दो परवाज़ ! भरने दो परवाज़ स्वयं को सभ्य बनाओ अहंकार भर जो करते हो उस पर  विचार कर जाओ ! पँख नोच कर घायल करते टुकुर टुकुर सब देखा करते सभा बीच तिरस्कृत करके नारी पूज्य हैं ढोंग रचाते ! द्वापर , त्रेता , हो या कलयुग यही रहे जज्बात नारी तू केवल भोग्या हैं तेरी यही रही औकात ! सतयुग में भी तों लोगो ने मर्यादा दी थी त्याग एक पुरुष के कहने भर से नारी को दिया बनवास ! विदुषी अहिल्या ने सहा पुरुष व्यभिचार का पाप निरपराध मिला उन्ही को पाथर होने का अभिशाप ! पर अब ....... बिना पँख परवाज़ भर उठ खड़ी हो नार जो भी आये रोकने कस कर ठोकर मार ! खण्ड खण्ड करके रखदे व्यभिचारी का उन्माद खप्पर भर ले उसके रक्त से जो भी करे अपमान ! शक्ति तू भक्ति हैं तू ही तू ही हैं महाकाल नव भाव जाग्रत हुई नारी नर जाग सके तों जाग ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता स्व रचित

लोरी

लोरी 🌾🌾 मेरे दिवा स्वप्न साकार पुत्र के लिये लिखी लोरी जब वो हॉस्टल की पहली रात सो नही पा रहा था ...... तेरे रक्त की लालिमा मेंं जो धवल कणिकाएँ बहा करती मातृ दुग्ध के धवल धार की तुझको याद दिलाया करती आगे बढ़ छूले दिनकर को आवाज रक्त मेंं प्लावित होती उष्ण रक्त की बहती धारा मै ममता की गर्माहट होती ! धड़कन के हर स्पंदन मै लोरी की गुन गुन सी होती सिर्फ दुग्ध ही नही रक्त मेंं माता स्वयं प्रवाहित होती मेंं सरितृप्त आत्मा तेरी तन से विलग नही होती जरा हृदय मेंं झांक पुत्र तू तुझमें  स्पंदित होती ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता

चरित्र

चरित्र ..... चरित्र एक व्यापक सी बात हैं जड़ चेतन सब व्याप्त रहे अति विचित्र परिभाषा इसकी बिन इसके कब बात बने ! आदि काल से चली आ रही विचित्र चरित्र मीमांसा कभी सत्य मेंं कभी फरेब मेंं होती इसकी विस्तृत व्याख्या ! एक जगह  स्थिर नही ऐसी चरित्र की जात समय काल से बदलते देखो चरित्र के भाव ! कब क्या और किस तरह इस चरित्र ने रूप धरे विषम भाव से भरा कभी कभी सहज भाव विनम्र रहे ! चरित्र को परिभाषित करते स्वयं नरायण हार गये साम दाम दण्ड भेद के आगे चरित्र बेचारा मूक रहे ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता

मानवता

मानवता .... चौवनवां कदम पढ़ने और लिखने तक ही मानवता का अहसास जरूरी हैं वरना कब समझे हैं हम की माँ बाप जरूरी हैं ॥ टेक फॉर ग्रांटेड लेना तो अब हम सब की रीत हुई माँ बाप की सिर्फ जरूरत बेबी सीटर तक ही रही ! वस्तु सरीखे रिश्ते हो गये मोल तोल के  हुए विचार काम के हैं तो घर मैं रखो वरना काहे का व्यवहार ॥ पाल पोस कर बढ़ा किया ये तो फर्ज निभाया हैं एहसान क्या किया हैं उन पर मानवता का मोल चुकाया हैं ! पर भूल गये ये परिपाटी हैं यू ही खतम नही होती आगे तक ले जाने की सबकी ड्यूटी भी बनती ! काश ..... काश समझ पाते ड्यूटी को तो ना ये गड़बड़ होती जर जर होती मानवता बैठ सड़क पर ना रोती ! कर्म कुकर्म सभी हैं  तुझमे एक दिन आगे आयेगा तेरा पुत्र ही  ठोकर देगा तब मानवता का मोल समझ आ आयेगा ! डॉ इन्दिरा गुप्ता स्व रचित

व्यथा

व्यथा ... बार बार चाहा मेंने मिलन पुनः कर डालूँ अहं का सर झुका झुका कर व्याकुल मन को समझा लू आतुर मन को मना मना कर पुनः निकट बैठा लू ! पर ...... नही तुम्हारा पुरुषत्व कुछ भी तो समझ ना पाया व्याकुल नारी का आकुल मन कर खण्ड खण्ड विखराया अहं के उथले छिछले दल दल से तेरा मैं ...तनिक उबर ना पाया त्रसित भाव त्रसित ही रह गये तृष्ण भाव तेरा उल्लास महिमामंडित सदा नर रहा ना समझा सका नारी मन भाव ॥ ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता स्व रचित

वो जा रहा हैं

वो जा रहा हैं .. वो जा रहा हैं हमसे बिछड़ कर जमी रो पड़ी आसमां को तक कर कैसी थी चाहत कैसी कशिश थी पलकें थी गीली सुखी हँसी थी दिल कह रहा था मुड़ के वो देखे कदम कह रहे थे कोई हमको टोके खरामा खरामां दूर हो गया वो ना मैने ही रोका ना वोही रुका था दूर होते होते दूर हो गया था इश्क़े रवायत बड़ी ना समझ हैं क्या चाहती हैं ना वो जानती हैं खामोशी का आलम आहें कसक हैं होती हैं आहट लो वो जा रहा हैं ॥ ॥ डॉ इन्दिरा गुप्ता स्व रचित

पिता बेटी का नाता

पिता बेटी का नाता ... सघन वृक्ष की घनी छाँव सा सशक्त दृढ़ आभास एक अटल विश्वास सरीखा मन का सुदृढ़ पड़ाव ! सम्पूर्ण काव्य रस छंद अलंकृत नव सृजन सा भाव एक बलिष्ठ वलय बांह का सर पर सशक्त सा भाव ! पिता एक संगीत भरा स्वर सरगम से परिपूर्ण एक ख्याल मधु एस के जैसा सरस और उपयुक्त ! कर्तव्य भाव और कर्तव्य निष्ठता कर्म भाव का दिव्य स्वरूप तृप्त प्यास आकंठ गले लग परीपुर्ब और सम्पूर्ण ! मेले के झूले की पैग सा उछन्द और उत्साह स्कूल का पूरा बस्ता जीवन की परिपूर्ण किताब ! माता के उज्वल ललाट की लाल गोल सी आभ खुली बांहे नेह सशक्त सी मन अवलम्बन की चाह ! पिता नेह सुस्वादु व्यंजन तृप्त आचमन भाव पिता से नाता कमल नाल सा जिसका ना कोई पर्याय ॥ डा इन्दिरा गुप्ता स्व रचित