पृथ्वी दिवस ...🐒
प्रथ्वी दिवस मना रहे है
चहुंओर है शोर
पृथ्वी असमंजस मैं तकती है
क्या दूजी पृथ्वी है कोई और
दूजी पृथ्वी है और
जिसका दिवस मनाते है
मुझको तो हर पल
हिस्सों में ही बांटे जाते है !
जातीबाद के झगड़े आंदोलन
और व्यभिचार करें जाते
किस पृथ्वी को बचाने के
नारे हर वर्ष लगाते !
मैं कृष काय हुई जा रही
कहाँ ये वृक्ष उगाते है
जहरीली बस हवा हो गई
विषाक्त मुझे बनाते है !
पृथ्वी दिवस का शोर मुझे
हर पल त्रास देता है
माता जैसा समझो मुझको
बस ये भाव ही सुख देता है
दिवस एक दिन के ये नारे
मुझको व्याकुल कर देते
पुनः साल भर के लिये
कहीं विलुप्त से हो जाते !
सुनो पुत्रों धरो ध्यान ये
हनन स्वयं का करते हो
पृथ्वी पृथ्वी चिल्लाते हो
उसको ही काटे जाते हो !
एक दिवस रख लेने भर से
मेरा उद्धधार नहीं होगा
हर दिन मेरा ध्यान रखोगे
तभी निवारण कुछ होगा !
डा इन्दिरा ✍
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteसत्य लिखा आप ने
बहुत सारी शुभकानाएं
ऐसे झूटे दिवस प्रताड़ित करते है
Deleteकर्मठता का अभाव है केवल गाल बजाते हे
जी प्रिय इंदिरा -- आपने बिलकुल सही कहा - धरा की वेदना को कविमन के अलावा कहाँ कोई सुन पा रहा है कंक्रीट से जंगल सजाते इन्सान को ये भूलना नहीं चाहिए इंसान की ही नहीं धरती पर बसने वाले हर प्राणी की है जिसमे इन्सान के साथ अन्य थलचर . जलचर के अलावा नभ चर भी उड़ान के बाद विश्राम तो अंततः धरा पर ही पाते हैं | सार्थकता से सच्चाई से रूबरू कराती रचना के लिए शुभकामनायें |सस्नेह --
ReplyDeleteअतुल्य आभार रेनू जी आपने कितने सहज शब्दों मैं काव्य की व्याख्या कर दी मन खुश और तृप्त हुआ !
Deleteनमन
धरा की पीर कितनी गहरी कह गई आपकी रचना मीता एक दिन का व्यवहारिक उत्सव।
ReplyDeleteअप्रतिम ।
आभार
ReplyDeleteबेहद कड़वा पर बिलकुल सत्य है
ReplyDeleteवाक़ई कोई दूसरी पृथ्वी ही होगी
क्योंकि अपनी पृथ्वी को तो सब भूल गये हैं
पृथ्वी दिवस मना कर साल भर पृथ्वी को ही कष्ट देते हैं
शर्मसार है वो इंसानियत जो अपनी माता के आंसू का दर्द का कारण है
बहुत सुंदर उत्क्रष्ट रचना
मन को छूती
आभार मेरे काव्य भाव समझने के लिये
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