तम ही तम ..☘
ग्रीष्म ऋतु मैं जैसे वल्लरी
झुलस झुलस कुम्ल्हा जाये
कोमल भाव तंतु से जलते
बिन कहे विसर्जित हो जाते !
ज्ञान चक्षु भी शून्य निहारे
बिसर गया सब ध्यान नमन
गठरी जैसा भाव विहीन मन
ताक रहा सुना सा गगन !
चातक अब मौन हो रहते
नहीं कुहुक कोयल की है
आम्र मंजरी झड़ झड़ जाये
सौरन्ध्री नहीं महकती है !
स्वाति बूँद नक्षत्र विसर्जित
अंतर मन घनघोर तपन
काव्य लेखनी सृजन करें क्या
विस्तार ले रहा तम ही तम !
डा इन्दिरा ✍
बौद्धिक दिवस पर समर्पित सृजन 🙏☘
प्रकृति और आप का अटूट नाता है। उसके दुःख से दुखी आप का कवी मन।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत तरीके से उसे व्यक्त भी किया। बहुत सुन्दर रचना।
आभार नीतू जी काव्य को पूर्ण अर्थ दे गई आपकी प्रतिक्रिया !
Deleteप्रकृति और हम एक दूजे मैं रचे बसे है तभी जब जब प्रकृति का ह्रास होता है हमारा विनाश होता है !
सुप्रभात सखी
आम्र मंजरी झड़ झड़ जाये
ReplyDeleteसौरन्ध्री नहीं महकती है !
स्वाति बूँद नक्षत्र विसर्जित
अंतर मन घनघोर तपन
काव्य लेखनी सृजन करें क्या
विस्तार ले रहा तम ही तम !
मंत्रमुग्ध करती शब्दावली!! मुग्ध करती शैली। मुदित करते शब्दार्थ। बहुत सुंदर
अति आभार मौलिक जी परिमार्जित प्रतिक्रिया काव्य लेखन को और सफल कर देती है ! फिर आप तो सुपाठक , आलोचक और स्वयं कवि है .काव्य की गहराई नाप लेना आपका स्वभाविक गुण है .
ReplyDeleteसुप्रभात
स्वाति बूँद नक्षत्र विसर्जित
ReplyDeleteअंतर मन घनघोर तपन
काव्य लेखनी सृजन करें क्या
विस्तार ले रहा तम ही तम !
बहुत सुन्दर.....
वाह!!!