उड़ान 🐽
मनई चिरई उड़ी उड़ी फिरे
मिले ना कोई ठाँव
पेड़ कटे कंकरीट के जंगल
कहाँ मिले अब छाँव !
मनई कोमल भाव कट रहे
कटई मनई तन शाख
कहाँ किधर बैठे कोई जाकर
जग सुना हुआ मसान !
तपती धूप उड़ान भर रही
भाव अतृप्त और त्रसित हुए
कर्म - धर्म सब द्रव्य हो गया
मनन भाव कहीं लुप्त हुए !
चिंतन को अब कोढ़ हो गया
संस्कृति के पर कटे हुए
कैसे नव उड़ान ले सभ्यता
पंगू से संस्कार हुए ! !
डा इन्दिरा ✍
पंगु से संस्कार हुए... वाह... अति उत्तम आदरणीया👌👌👌👏👏👏
ReplyDeleteआभार अमित जी
Deleteअद्भुत रचना.....बहुत ख़ूब
ReplyDeleteसटीक और अद्भुत रचना ..
ReplyDeleteअतुल्य आभार सुप्रिया जी
Deleteआभार सखी नीतू जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteकैसे नव उड़ान ले सभ्यता
पंगू से संस्कार हुए ! !
सटीक...
thanx सुधा जी
Deletethanx
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ९ अप्रैल २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुंदर और सटीक रचना
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