तपन ..
भरी दोपहरी भरा हौसला
तपन बाहर भीतर सब एक
जठराग्नी मन झुलसाती
सूरज की आग सेंकती देह !
छोटी उम्र हौसला भारी
दोपहर अलाव सी जला करें
बस्ता उठाने वाले कंधे पर
जब बोझ ग्रहस्थी आन पड़े !
इससे अधिक जेठ क्या झुलसाये
भूख तपन अंतडिया सेकें
गुड्डे - गुडिया वाली उम्र में
उम्र से अधिक वजन खींचे !
पापी पेट क्या ना करवा दे
जो ना करवा दे सो कम है
भरी दोपहरी ना धूप जलाये
बस चूल्हा जल जाये क्या कम है !
डा इन्दिरा ✍
सुंदर! !
ReplyDeleteदर्द उकेरती रचना ।
स्नेहिल आभार मीता
Deleteपेट की खातिर क्या कुछ नहीं करना पड़ता.
ReplyDeleteएक मर्दानी निकली है अपने लक्ष्य को साधने अपने परिजनों की खातिर.
दर्द और साहस का संगम है इस कविता में.
आभार सुधा जी ....लेखन को बल दे गई आपकी प्रतिक्रिया
Deleteवाह!!इन्द्रा जी ..लाजवाब !!!
ReplyDeleteअति आभार
Deleteअंतर्मन को द्रवित करता शब्दचित्र. चित्र जीवंत हो उठा और असली भारत से साक्षात्कार कराते चित्र को शब्द- विन्यास ने अत्यंत प्राभावशाली बना दिया है. वास्तविकता इतनी ही निष्ठुर और कड़वी है. कहने को बाल अधिकार के लिये मंत्रालय से लेकर अनेक क़ानून भी अस्तित्व में हैं.
ReplyDeleteआदरणीया इंदिरा जी आपकी कविता ने संवेदना को झकझोर कर रख दिया है.
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
सोमवार 28 मई 2018 को प्रकाशनार्थ साप्ताहिक आयोजन हम-क़दम के शीर्षक "ज्येष्ठ मास की तपिश" हम-क़दम का बीसवां अंक (1046 वें अंक) में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
अतिसुन्दर दिल को छूती हुई रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी रचना...
ReplyDeleteहृदय के संवेदनशील भाव जागृत और तरल हो उठे इन्दिरा जी आपकी यह रचना बेहद मर्मस्पर्शी है।
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी रचना.... सच में पेट की आग के आगे ज्येष्ठ माह की तपिश भी कम है। जठराग्नि से दाहक कौनसी अग्नि है भला......
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