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अंकुरण

अंकुरण ...🌾

हो अंकुरण नव भावों का
घुटन भरी हर द्रष्टि का
प्रकृतिक मरते भावों का
विद्रूपता लिये समाजों का !

अंकुरण चाहिये हर ओर  सखे
नव भोर प्रभाती पावन  में
उषा घट छलके नव अमि  नयन
हो कलरव नव खग बृंदन में !

कोमल पँखुरिया खुल  के
खिल  कर स्पंदन करें नित्य
हर मन अंकुर शाश्वत सा हो
हर ओर दिखे आता बसंत !

अंकुरण हो फिर विस्थापित
भूले बिसरे संस्कारों में
करो अंकुरण भूल गये जिन
खोये हुए आधारों में !

नव अंकुर हर हृदय उगे
नव पल्लव सी विहँसे उमंग
हर प्रभात नव होय प्रभाती
प्लावित हो नव जल तरंग !

डा इन्दिरा  ✍

Comments

  1. कैसे होगा मुश्किल है, आशाओं की धूप नहीं, न मन से कोई कोमल है, कैसे सींचे मिट्ठी जो के क्षतविक्षत सा आँचल

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    Replies
    1. नमन अज्ञात जी ...
      खण्डित पन से नवाँकुरण हो तभी बनेगी !
      फटे आँचल मैं भी भाई माटी संचित ही की जाय !
      🙏

      Delete
  2. विहंगम दृष्टि आत्म बोध देती।

    ReplyDelete
    Replies
    1. कुछ शब्दों मैं ही लिख दिया पूरी कविता का सार ....आभार आभार 🙏

      Delete
  3. बहुत उम्दा रचना

    ReplyDelete
  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २५ जून २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
  5. वाह!!, बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।

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  6. अद्भुत उत्क्रष्ट रचना

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