प्रकृति / मनुज ...
प्रातः काल उषा की लाली
शरमाई दुल्हन जैसी
नीला अम्बर ओढ़ के निकली
ज्यू पी घर प्रथम कदम रखती !
ऋषि कश्यप पुत्र संग ब्याही
हुई सिन्दूरी मुस्काई
शबनम के मोती बिखेरती
पावन धरा उतर आई !
स्वागत गीत खग वृंद सुनाते
तोरण द्वार से पात सजे
पुहुप विहंगम राह बनाते
कुलवधू सा सम्मान करें !
नित का आना नित का जाना
नित यही व्यवहार चले
तनि भी गाफिल कोई नहीं है
सदियों से क्रम यही चले !
प्रकृति कभी कुछ नहीं भूलती
सदा सदाचार का भान रहे
मनुज बना क्यों असुर घिनौना
विद्रूप सा व्यवहार करें !
सभ्यता संस्कृति ताक पे रख दी
व्यवहार कुशलता भूल गये
भागीरथी भी मैली करदी
कर्म - कुकर्म ना भेद करें !
डा .इन्दिरा .✍
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपका आशीष बना रहे दी
Deleteप्रणाम
सुंदर प्रस्तुति भावनाओं को कचोटती रचना
ReplyDeleteआभार जीवन समीर जी काव्य को समझने का ...आपकी तीक्ष्ण नजर को प्रणाम 🙏
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 24 जुलाई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDelete🙏अतुल्य आवारा यूँही हौसला अफजाई करती रहियेगा
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआभार लोकेश जी
Deleteपरखी नजर और गहन सोच के लिये आप बधाई के पात्र हो भाई अमित जी ...
ReplyDeleteआपका आभार bro
प्रकृति कभी कुछ नहीं भूलती
ReplyDeleteसदा सदाचार का भान रहे
मनुज बना क्यों असुर घिनौना
विद्रूप सा व्यवहार करें !
बेहद खूबसूरत रचना इंदिरा जी 👌
आभार
Deleteप्रकृति का सौंदर्य और मुक्त हस्त से मानव को अनुदान, रचना के सुन्दर अप्रतिम भाव
ReplyDeleteसाथ ही मानव की कृतघ्नता का सटीक वर्णन, बहुत सार्थक रचना बहुत सुंदर भी।
स्नेहिल आभार मीता
Deleteभावनाओं को कचोटती बहुत ही शानदार रचना। शब्दों को ऐसे सजाया की क्या कहूं निःशब्द कर दिया आप ने
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा .......लाजवाब।
लेखन की सार्थकता पाठक के द्रष्टिकोण पर निहित होती है आभार सखी
Deleteस्वागत गीत खग वृंद सुनाते
ReplyDeleteतोरण द्वार से पात सजे
पुहुप विहंगम राह बनाते
कुलवधू सा सम्मान करें !- प्रिय इंदिरा जी -- प्रकृति बिना भेद भाव सब करती है इन्सान उससे बहुत कुछ सीख सकता है | पर अपने कुत्सित कार्यों से धरती और जल धाराओं को मलिन करता रहता है | सुंदर सुघड़ रचना के लिए हार्दिक बधाई |
सुंदर रचना, प्रकृति ही सबसे बड़ी सखा है और गुरु भी....
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