शमशान
देकर बलि दानव दहेज को
नहीं कहो तुम दान
मात तात तुमने ही क्यूँ कर
लिये कली के प्राण !
नहीं विवशता ये तो कोई
नही कहो ये भाग्य
झूठे दम्भ झूटी गरिमा पर
क्यूँ चढ़ते परवान !
ना सदा बोझ है बेटी तेरा
ना बेटा सदा महान
दो है नेत्र दोनों से बहते
आँसू एक समान !
हाय समस्या है ये कैसी
जिसका ओर ना छोर
हमीं बढ़ाते और समझते
इसमें अपनी शान !
कितनी बेबस आई है "इन्दिरा "
जलते देखें सब अरमान
जिस घर की खिड़की से झांका
उस घर में देखा शमशान !
डा इन्दिरा .✍
8 sep 1095
स्व रचित
भावपूर्ण रचना सुन्दर
ReplyDeleteना सदा बोझ है बेटी तेरा
ReplyDeleteना बेटा सदा महान
दो है नेत्र दोनों से बहते
आँसू एक समान !
सदा की तरह बेहतरीन रचना मार्मिक सत्य को उद्घाटित करती है
भावपूर्ण अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दर रचना सखी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा आप ने
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति
तीखा प्रहार करती, मर्मांतक रचनि मीता।
ReplyDeleteभुक्तभोगी बिटिया का ये मार्मिक संवाद बहुत मर्मस्पर्शी है प्रिय इंदिरा जी | काश ! माता - पिता दहेज के लिए जमा की गयी दौलत मेधावी बिटिया को शिक्षा का अधिकार दे कर करें तो दहेज का ये दानव हमेशा के लिए सो जाएगा | सार्थक रचना |
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