नारी उत्पीड़न / कानून ..
कितना रोका और बढाया
नारी के उत्पीड़न को
कहे इन्दिरा हाथ बढ़ा
खोलो कानूनी वातायन को !
मोटे मोटे संविधानौ में
लाखों धारायें बनवाते
धाराओं की द्फाओ में
भोली नारी को फंसवाते !
समय आने पर ये धारायें
कनून को दफा कर देती
पुरुष के अहम समुद्र में
नारी को काल तिरोहित करती !
जिव्हा होगी मूक और
आँखें स्थिर हो जायेगी
देखोगे जब धक धक जलती !
धारा दफा तदूंरो में !
नारी और कानून का नाता
कैसे होगा पोषित
कानून बनाने वाले कर में
जब कलम नहीं परिष्कृत !
कानून नहीं सजीव सी वस्तु
जिसमें एहसास समाहित हो
कागज की बेजान किताबें
नारी क्यूँ ना भस्मित हो !
रूप कवर या भंवरी देवी
नैना देवी या निर्भया काण्ड
जिस घर में भी जा कर देखा
हर घर में जलते अरमान !
जागो पुरुषों धरो ध्यान तुम
हनन हो रहा स्वयं तुम्हारा
मातृत्व के बढ़ते अभाव में
कहाँ बचेगा अस्तित्व तुम्हारा !
बदलो ऐसा कानून जहाँ
व्यभिचारी आश्रय पाते है
सरे आम तेजाब फैंकते
बेगुनाह कहलाते है !
डा इन्दिरा .✍
स्व रचित
10 .11. 98
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हनन हो रहा स्वयं तुम्हारा
मातृत्व के बढ़ते अभाव में
कहाँ बचेगा अस्तित्व तुम्हारा
बेहतरीन रचना
संदेश देती एक और खुबसूरत रचना..
ReplyDeleteमातृत्व के अभाव में कहाँ बचेगा अस्तित्व तुम्हारा
ReplyDeleteसंदेश देती बेहतरीन रचना 👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteसभी पाठकों का हृदय से आभार
ReplyDeleteक्या बात है प्रिय इंदिरा जी -- व्यभिचारी समाज को आइना दिखाती सार्थक रचना | नारी विमर्श अद्भुत है | सस्नेह --
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