तिश्नगी ..
हृदय भाव उद्धवेलित से है
निर्झर मन जल धार बहे
उफन उफन दरिया में मिलते
सागर तक अविराम बहे !
उतन्ग मन और घनी वितृष्णा
कल कल कर बहती नदियां
हिम खण्ड से शुष्क भाव
रुको निमंत्रण देती सदियां !
पर प्रवाह कहाँ रुकता है
अविराम पिपासा सा बहता
सागर में जाकर मिटे तिश्नगी
अभिराम विराम तभी होता !
डा इन्दिरा .✍
वाह बहुत खूब है ये तिश्रंगी अबुझ प्यास जैसी।
ReplyDeleteउम्दा रचना।
thanx
Deleteतिश्नगी बुझ जाए तो जीवन सफल हो जाता है ...
ReplyDeleteचाहे सागर तक जाओ ...
अच्छी रचना ...
true ..👍👍👍👍👍
ReplyDeleteलाज़बाब!
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत लाजवाब तिश्नगी....
ReplyDeleteवाह!!!
वो तिश्नगी क्या जो लाजवाब ना हो 🙏
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