चरित्र .....
चरित्र एक व्यापक सी बात हैं
जड़ चेतन सब व्याप्त रहे
अति विचित्र परिभाषा इसकी
बिन इसके कब बात बने !
आदि काल से चली आ रही
विचित्र चरित्र मीमांसा
कभी सत्य मेंं कभी फरेब मेंं
होती इसकी विस्तृत व्याख्या !
एक जगह स्थिर नही
ऐसी चरित्र की जात
समय काल से बदलते
देखो चरित्र के भाव !
कब क्या और किस तरह
इस चरित्र ने रूप धरे
विषम भाव से भरा कभी
कभी सहज भाव विनम्र रहे !
चरित्र को परिभाषित करते
स्वयं नरायण हार गये
साम दाम दण्ड भेद के आगे
चरित्र बेचारा मूक रहे ॥
डॉ इन्दिरा गुप्ता
बहुत सुन्दर सृजन ... चरित्र मुक होते हुए भी बहुत कुछ कह जाता है बिन कहे दिल में उतर जाता है
ReplyDeleteसादर
आभार सही पकड़े हो अनीता जी
Deleteवास्तव में चंचल चरित्र की व्याख्या तो नारायण के वश में भी नही
ReplyDeleteइस निरंतर बदलते चरित्र पर अद्भुत आपकी रचना दीदी जी
सादर नमन सुप्रभात
सत्य कहाँ लेखन की तरबीयत खूब समझे हो आँचल जी
Deleteपरिस्थितयों के अनुसार अवतारों ने भी चरित्र बदले हैं | इस विचित्र चरित्र की मीमांसा कहाँ संभव सखी ?
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