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विस्मय

विस्मय ......

विस्मय होता
बादल मिलने रोज धरा पर धुंध बदल के क्यो आते
नन्ही नन्ही बूंदो की पायल लाकर के पहना जाते !

कैसे यामिनी आँचल ओढ़े साथ जुगनुओं को लाती
चमक दमक कर इत उत उड़ते लगते सारे बराती !

सूर्य किरण के इंतजार में,  क्यो भंवरा जागे सारी रात
बन्द कमल कोमल पंखुरी, क्यो भेद नही पा लेता त्राण !

विस्मय होता एक बीज में वट विशाल कहाँ  छुपा होता
नारियल का बन्द पिटारा, क्यू कैसे जल से भर जाता  !

विस्मय होता देख चमन को पत्ते पत्ते डारी डारी
शबनम के मोती बिखरे है ,या अश्क भरे क्यारी क्यारी !

नित्य सुबह अरुणोदय होता संग में उषा रतनारी
कौन जगाता इनको भोर में विस्मय है देखो भारी !

स्वयं "यथार्थ " विस्मित हुआ, विस्मित हो जाता  मन विस्मय सा ही सृजनकार है विस्मित ही सृजन का ढंग !

डॉ .इन्दिरा गुप्ता "यथार्थ "

Comments

  1. बहुत ही सुंदर रचना सखी इन्दिरा जी ...बहुत बहुत बधाई शानदार सृजन की

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