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Showing posts from November, 2018

भस्म करो या तृप्त करो

भस्म करो या तृप्त करो .... आंखों में भर ओज का रौरव उठ भी जाओ सोते क्यों हो शिवा प्रताप के तुम हो वंशज हैरानी सी बोते क्यों हो ! जिन आंखों में ज्वाला धधके बांह उन्हीँ की रह रह फडके शिवा अंश फिर रक्त बीज बन उष्ण रक्त को बहने दो ! अरि रक्त बहे धरती पर नर मुन्डो का इतिहास रचो त्राही त्राही कर रही धरा तुम सावन बन कर बरसों ! आर्तनाद चहुंओर गूंजता छाती फटती है सुन कर आजाद भगत सुखदेव रूप धर फिर आजाओ धरती पर ! भारत भूमी चीत्कार कर रही भस्म करो या तृप्त करो तिल तिल कर यूं कण कण जलना दारुण दुख से मुक्त करो ! खुल कर श्वास नहीं ले पाती घुट घुट कर ही जीती हूँ अभिशप्त अहिल्या सा तन लेकर नित  शाप को ढोती हूँ ! कोई तो राम बनो जग  में शापित माँ का उद्धार करो या चक्र सुदर्शन ले नारायण फिर महाभारत आगाज करो ! इस पार या उस पार रहे जीवन त्रिशंकु सा जीवन क्या जीना लड़ो , जीतो , या वीरगति पाओ माँ भारती का हो चौड़ा सीना ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍

शजर ( वृक्ष )

शजर  ( वृक्ष ) .... नग्न शजर चुपचाप खड़ा है पात पात कर झरता है जैसे बच्चे एक एक कर घर को छोड़ निकलता है ! मनई धरा निर्जला हो गई कंकरीट से भाव हुए पुष्प वहां कैसे हो सुरभित जहाँ पाथर से  जज्बात हुए ! फल फूल देता रहा जब तक शजर महान मिलता रहा सभी से उसको मान और सम्मान ! मान और सम्मान कछु अब काम ना आये द्वार पड़ी सुखी टहनियां नाहक शोर मचाये ! काट छाँट कर परे करो मिटे एक अभिशाप बूढ़ा शजर बोला तभी जलाने के आऊँ काम ! शर्म सार सी कलम है नैनन रही झुकाय वृद्ध शजर के घाव को कैसे वो भर पाये ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍

बंजर सा मन

बंजर सा मन ..... जीवन के इस उहां पोह में मन बंजर हो जाये दरक गई सुखी धरती लफ्ज ना उगने पाये ! सायं सायं भावों का अंधड़ यादों को गर्माये पिघल पिघल कर गिरे धरा पर मन पिघला सा जाये ! अतृप्त मन तृप्त नहीं कैसे सुकून की बात लिखूं कैसे कलम मसि में बूढ़े कैसे सूखे जज्बात लिखूं ! डा इन्दिरा गु्प्ता स्व रचित

आहट

आहट ... दबी दबी सी आहट होती थम थम कर रुक जाती है जैसे कोई धीमे धीमे सोच सोच कर चलता है ! कुछ बोले या चुप रह जाये उलझे से जज्बात हुए कहते कहते रुक जाता है रुकते रुकते कहता है ! लफ्जों से परहेज हो रहा खामोशी बतियाये कभी छुपे कभी सामने आये कभी नजर ना आये ! कैसी चाह ये कैसा हठ है कभी लगे मेरा पूरा कभी खाली हाथ रह गये कभी नहीं कुछ था मेरा ! ऊहापोह दर पर आ जाऊ खोलूँ या फिर , फिर जाऊ आयेगा क्या आने वाला या केवल इंतजार करू ! डा इन्दिरा गुप्ता स्व रचित !

पहचान जरा

पहचान जरा ... संघर्ष मान कर चुप रह जाना ये तो तेरा काम नहीं बार बार प्रहार करो जब तक हो ना जाये सही ! तू नारी है तू पूर्णा है अपनी शक्ति को पहचान कोई बांध सका क्या तुझको तू प्रचण्ड सी ज्वाल समान ! तू निर्बल है तू दासी है केवल भ्रम ही पाल लिया तू एक अकेली अक्षुण सेना जिसको नारायण ने मान दिया ! शक्ति बिन खुद प्रभु अधूरे स्वयं को निर्बल कहते है बिन नारी काज नहीं पूरण वेद पुराण सब लिखते है ! राधेश्याम या सीता राम हो गौरी शंकर या रीद्दी सिद्दी गणेश बिन शक्ति जब नाम अधूरा लवलेश मात्र ना मिटे क्लेश ! डा इन्दिरा ✍

तिश्नगी

तिश्नगी .. हृदय भाव उद्धवेलित से है निर्झर मन जल धार बहे उफन उफन दरिया में मिलते सागर तक अविराम बहे ! उतन्ग मन और घनी वितृष्णा कल कल कर बहती नदियां हिम खण्ड से शुष्क भाव रुको निमंत्रण देती सदियां ! पर प्रवाह कहाँ रुकता है अविराम पिपासा सा बहता सागर में जाकर मिटे तिश्नगी अभिराम विराम तभी होता ! डा इन्दिरा .✍

सीख लिया

पंख नोचते है शुभ चिंतक फिर भी उड़ना सीख लिया मन में अपने आह दवा कर वाह से जुड़ना सीख लिया ! कर विहीन कर पतवारौ से नाविक थाम चला नय्या साहस का चप्पू  लेकर सागर से लड़ना सीख लिया ! में समर्थ मन मतवाला हूँ बिना पंख  के परवान चढू अरि के मद का दोहन कर दूँ नीले नभ परवाज़ भरूं ! भ्रमित नहीं तनि भी मेरा मन अखंड अभीत दृढ़ भाव धरु खण्ड विखण्ड करु बाधाये नव निकोर  भवितव्य रचू ! डा इन्दिरा .✍

माँ का कर्ज

माँ का कर्ज ..... जिस ममता के खातिर श्यामा बार बार अवतार धरो मात यशोदा से भी पहले जन्म भूमि का उद्धार करो ! आओ पुनि  धरा पे कान्हा  माँ का कर्ज चुका देना अरिहँत अरिहँता बन कर अरियो को सबक सिखा देना ! नारायण कहलाये हो तो नारायण से कर्म करो त्राहि त्राहि हो रही धरा पर उठो जनार्दन उठ दोडो ! बंसी की मधुर धुन नाही अब गांडीव का घर्षण हो चले सुदर्शन सत्य प्रतीक सा माँ भारती हित तर्पण हो ! हे मधुसूदन हे करुणाकर करुण रस क्या सूख गया गज रक्षा हित दौड़ पड़े थे भक्त का दुख देखा ना गया ! भारत भारती द्रवित नयन से एकटक तुम्हें निहार रही मातृ भूमि का कर्ज उतारो आर्त सुनो  हे कन्हाई ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍

हसरत

हसरत ... सुरमई सी शाम हो गई खामोशी भी है पसरी सन्नाटे को चीर के चीखें ऐसी हसरत होती है ! सहमी सी खमोश फिजा जाने किसकी राह तके कोई उठ कर चला गया या आने की बाट तके ! मन बहुत अशांत सा रहता आने वाला तूफान  है क्या बदल रहा आसमां देखो कहता मानो अनकही व्यथा ! सुना पन पसरा सन्नाटा खामोशी चीत्कार करे जाने किसकी राह तक रही जाने किसका इंतजार रहे ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍

हे मधुसूदन

हे सखे  .... हे योगेश्वर हे जगदीश्वर जग के पालन हार सखे भाग्य विधाता जग के दाता तुम सर्वज्ञ शक्ति मान सखे ! भाग्य अभियंता कर्म प्रणयंता तुम हो अन्तरयामी  सखे हे मधुसूदन हे बनवारी जगत पिता तुम नाथ सखे ! हे नरनागर हे करुणाकर तुम  जीवन आधार सखे दीनदयाला हृदय विशाला तुम प्रतिपालक सदा सखे ! नाथ विशाल रूप तुम प्रगटे में नर हूँ नादान सखे कोमल हृदय भीरू भई छाती विशाल रूप लख बाल सखे ! बांह पकड़ निकट बैठा लो सर पर रखना तुम हाथ सखे में नादान कछु विवेक नहीं तुम ज्ञान नाद अविराम सखे ! हाथ पकड़ राह दिखला दो पंथ नहीं कुछ सूझे सखे अंधकार चहुंओर हुआ है तुम प्रकाश  परिपूर्ण सखे ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍ स्व रचित

आधी दुनियाँ

आधी दुनियाँ ... आधी दुनियाँ कहलाने वाली छद्म भाव से छली गई ! भावुकता का दोहन करके कोमल हिय में सैध  करी ! नेह बना पाँव की बेडी हाथ रिश्तो से बंधे हुए ! नयन सदा भीगे ही रहते घर आंगन बस याद रहे ! डा इन्दिरा गु्प्ता ✍

गिद्ध द्रष्टि

गिद्ध द्रष्टि ... गिद्ध द्रष्टि व्याप्त हो गई हर नर के मन आंगन में नारी महज भोग्या रह गई हर कुदृष्टि की नजरों में ! पिता भाई मामा चाचा रिश्ते आज समाप्त हुए नर नारी का एक ही रिश्ता सर्व मान्य सा व्याप्त हुआ ! धरा फटे या नभ टूटे या आये कयामत दुनियाँ पर नष्ट भ्रष्ट जीवन हो सारा नव निर्माण हो धरती  पर ! तब शायद कहीं धर्म बचे शायद नारी पोषित हो एक अंश भी रह गया  पुराना ये समाज पुनि दूषित हो ! डा इन्दिरा गुप्ता सवा रचित

छठ पूजा

छठ पूजा ... दिनकर तुम साक्षी रहना मेरे व्रत तप अर्चन के परिजन प्रियजन सब सुख पाये मेरे इस जल अर्पण से ! नहीं जानती शब्द अलंकृत नहीं जानती व्रत पूजा सरल भाव स्वीकार करो हे सवितु मेरी पूजा ! रूखा सूखा जो भी बनाया सहर्ष भाव प्रभु अर्पण है टूटे फूटे से शब्दों से भक्ति भाव प्रभु वंदन है ! में हूँ अकिंचन माँ छठ पूजा पूजा विधि कछु ना जानू अश्रु जल कण सींच सींच कर पद पंकज आज पखारू ! मन तन की तू जानन हारी तुझको क्या कह में मांगू शुभ लाभ की दाता मय्या इतना ही बस में जानू ! घाट किनारे खड़ी निर्जला हाथ जोड़ नत मस्तक है पूजा मेरी स्वीकार करो माँ दास्य भाव हिय अर्पण है ! डा इन्दिरा गुप्ता स्व रचित

शरद ऋतु

शरद ऋतु ... आई शरद ऋतु इठलाती शीतल बयार सी पवन बहे रीते मेघ अठखेली करते चपल पवन संग होड़ करें ! तारक गण भी नील गगन में मुक्त भाव विचरण करते धरा सजी पीली सरसों से दिनकर जैसा भरम धरे ! ऐसी अद्भुत रूप छटा है ऋतु राज भी बहक गये धरा रुकू या गगन समाऊ भ्रमित भाव मन ठिठक रहे ! पुष्प गुच्छ सब महकन लागे मादक महुआ पी पवन बहे कामदेव रति क्रीड़ा करने अम्बर छोड़ धरा विचरे ! डा इन्दिरा गुप्ता ✍ स्व रचित

संतति

संतति ... मनु 🌸 माँ क्यारी का  केसर है  तू या मात्रत्व की उठती उमंग पिता का पुरुषार्थ भाव या उसका सम्बल सा  स्कन्ध ! पूर्व जन्म पुण्य प्रगटे जो तू आँचल में आया क्या कह करूं तुझे सम्बोधित तूतो है मेरा साया ! पुत्र गर्वीता मात कहाऊ रश्क करूं खुद अपने से लफ्ज लफ्ज में स्वयं बह रही तेरे दिल तक मेरे हिय से ! डा इन्दिरा .✍

कान्हा का संदेश

कान्हा का संदेश ... उद्धव तुम तो जानो मेरे हिय की तुम तो मोकू जान गये सब वैसो ही कहियो उद्धव जो जो तुमको भान रहे ! इत देखो वसुदेव देवकी  मोकू  अपनों जायो कहते उत सब यशोदा और नंद बाबा कू मेरो मात पिता कहते ! का सच और का झूठ है हिय मेरे अचरज भारी मोहे तो मेरो वृंदावन लागे मथुरा से भारी ! इते दिन बीते खबर ना लीनी बाबा को देना ओलमा जाय गाय चराने जब जाता था मिलों दूर भागते आये ! एक पल आँख ओट ना करते आज भेजो पराये धाम कैसे मान गया हिय उनका यशोदा मय्या जरा बताय ! अब माखन कौन कू देवे  कौन चुरा कर माखन खाय कौन ओलमो देतो होगो माँ तेरे लल्ला उधम मचाय ! एक एक भाव खोल कर कहना जो मेरे मन में पीर उठाय सखा तुम हिय की जानन हारे यासे तोकू देउ पठाय ! कह ना सका वो भी सब कहना सारों मधुबन यादों में छाये बाग तडाग पनघट की बतिया पल पल मोहे बड़ों तरसाये ! सब कहना फिर धीर बंधाना अधिक दिनन की बात नहीं पुनि आऊगो में वृंदावन अधीर ना होवे में हूँ सही ! डा इन्दिरा .✍ स्व रचित

नारी और सौंदर्य

नारी और सौंदर्य .. वातायन से झांक रहे हो वो भी उघडी नारी को रही संस्कृति कभी हमारी ना देखो पर नारी को ! पूरब में पाश्चात्य सभ्यता की करते हो हठ धर्मी यहां नारी को पूजा जाता माना जाता सहधर्मिणि ! एक तरफ चकले में बैठी नारी से घर द्वार छीनते और दूसरी तरफ हमीं सब फैशन शो करवाया करते ! नारी नहीं कोई एक वस्तु यूं सरे आम प्रदर्शित हो ये है मात्रत्व हमारा गौरव क्यों सरे आम तिरस्कृत हो ! रूढ़िवादी वर्ग कहे क्या क्या कहे आधुनिक वर्ग तन पर जितना कम कपड़ा जब उतना ही माना सौंदर्य ! कैसी विडम्बना देखो नारी की जिसको उसने जन्म दिया कर रहा प्रदर्शन उसी जिस्म का जिसमें उसका व्यक्तित्व ढला! ना है ये सौंदर्य प्रतियोगिता ना नारी का कोई सम्मान सीधा और सरल सा देखो नारी शोषण का नया विधान ! सुनो "इन्दिरा "करती आवाहन स्वयं करो अपना सम्मान नहीं रुढिता की ये बातें पहचानौ अपना स्थान !