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कल कल ...छल छल

कर कर ....छल छल ...

नदियां जल
लागे मन क्रंदन
कल कल बहे
कहे बस
कल कल
करता जाता
जीवन से छल !

सुना तट
उत्पात मचाता
भँवर धूल भर
धरा उठाता
गोल अर्ध गोल
सा घूमे
अति क्रमण सा
मन हो जाता !
खण्डित से
सूनेे मन तट पर
यायावर
पुनि लौट के आता !

वही पुराना
भ्रमित राग है
पुनि विकल
सा शब्द भाव है
जीवन प्रक्रिया
है अति भारी
काल चक्र की
करें सवारी
कल और छल
दोनों ही घोड़े
दिन रात की
है असवारी ! !
डा .इन्दिरा .✍

Comments

  1. बेहतरीन रचना इंदिरा जी

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    Replies
    1. स्नेहिल आभार अनुराधा जी

      Delete
  2. बहुत सुंदर रचना दी।

    ReplyDelete
  3. अप्रतिम अद्भुत।
    सचमुच जीवन कल के छल मे गुजर रहा है।
    मृग तृष्णा जैसा, भंवर मे उलझता डूबता।
    बहुत सुंदर रचना मीता।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही पकड़े है कल एक छल ही तो है.....काव्य भाव को सार्थक कर गई आपकी प्रतिक्रिया ..मीता

      Delete
  4. जीवन प्रक्रिया
    है अति भारी
    काल चक्र की
    करें सवारी
    .. सच कालचक्र से परे कोई नहीं जा सकता
    बहुत अच्छी रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. स्नेहिल आभार कविता जी आपकी सराहना काव्य की सार्थकता

      Delete
  5. "जीवन प्रक्रिया
    है अति भारी
    काल चक्र की
    करें सवारी
    कल और छल
    दोनों ही घोड़े
    दिन रात की
    है असवारी ! ! "

    वाह दीदी जी दार्शनिक रचना बेहद उत्क्रष्ट 👌
    कल कल कर छल
    खुद से कर डाला
    छल से कलि काल
    और गहराया
    है कलयुग की कैसी माया
    कल छल है एक दूजे की साया

    सादर नमन शुभ दिवस दीदी जी

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