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विरहिन रजनी

विरहिन रजनी ..

कर्म प्रसाद अब मौन हो गया
प्रशांत भी अब शांत हो गया
रवि चला जब अस्ताचल को
शान्त भाव विस्तार हो गया !
कुछ भाव हृदय कलरव के
इधर उधर अब भी बिखरे
पंख समेटे थकन जतन मैं
नीरव पन को सहलाते !
रात कलिमा पहन के चूनर
रत्न जड़ित तारों वाली
माथे झूले चाँद का टीका
चले चाल जब मतवाली !
जुगनू की पायल सिटी सी
किरक किरक कर खूब बजे
इधर उधर रतनारे जुगनू
दमक दमक मति भ्रमित करें !
सोये भाव सहज ही जागे
प्रीत रीत के भाव  उठे
शान्त और नीरव रात में
भाव ..शब्द पहन कुछ बात करें ......
विरहिन रजनी नित नित आये
प्रियतम दिनकर ना मिल पाय
साज शृंगार सब रह जाये अधूरा
साजन की जब नजर ना जाय !
मुक्ता मणि से अश्क बिखेर के
व्याकुल सी नित लौट के जाय
छोड़ जाय अकुलाहट जग  मैं
नित आवे नित यही सवाल !

डा इंदिरा ✍






Comments

  1. सरल पर मन को छूती ,बहुत अच्छी लेखन शैली है आप की।

    ReplyDelete
  2. निशा की चाह कभी न होगी पुरी
    भाष्कर और निशा मे सदा रहेगी दूरी।
    अंलकारों से झनकृत मोहक रचना ।

    ReplyDelete
  3. वाह दीदी जी लाजवाब
    अप्सरा सी सजी इस निशा का विरहिन रूप पहली बार देख रही हू जो दिनकर से मिलने को सज धज कर खड़ी है
    आज निशा को लेकर एक नया नज़रिया पाया हमने आपकी रचना के द्वारा
    बेहद खूबसूरत 👌

    ReplyDelete

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