कान्हा को संताप ....
सबै तज कर मथुरा जाऊं
कान्हा मन संताप उठो
मय्या .बाबा ग्वाल बाल सब
कैसे बिसराऊ में सबको !
यमुना तट की रेणु रजत सम
लहर लहर मोहे रोके
कुंज गलिन की कुंज बाग की
कली भी झर झर रोये !
नैन मूँद कछु देखन ना चाहूँ
पर सगरों मोहे नजर आवे
राधे की बेकल बहती अँखियाँ
मन मेरो अति तड्पावे !
हर हिय मैं कोहराम मचौ है
गोपी ग्वाल सब रोय रहे
कैसे धीर धरे खुद कान्हा
कैसे नारायण रूप धरे !
व्याकुल हिय के भीतर भारी
विरह ज्वाल की लपट उठे
पजरे जात कान्हा हिय माही
बस नाही सों जतन करें !
इस निश्छल नेह के आगे
कर्म भाव सब व्यर्थ लगे
में हूँ तीन लोक को स्वामी
कर्म गति पर बस ना चले !
डा .इन्दिरा ✍
बहुत सुंदर
ReplyDelete🙏अति आभार
Deleteवाह कान्हा का अंतर द्वंद्व कर्म और मोह
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना मीता
मां देवकी से मिलना होगा
मात यशोदा मन मे बैठी
बालकाल के छूटे साथी
वो ठिठौली ,माखन चोरी ,
मैया मोरी,राधा गोरी
गोप ,गोपियाँ यमुना तट,
कदम्ब और वट ।
बढ़ना होगा जीवन पथ पर
देना है जगती को ज्ञान
गीता का वो पाठ महान
मै बढ़ूगा जग बढेगा
होना होगा अब गतिमान ।
वाह मीता अद्भुत काव्य प्रतिक्रिया काव्य सम्वेदना को अग्रसर करती हुई ! नमन
Deleteस्नेहिल आभार भाई अमित जी आपकी सराहना मैं भावों की अद्भुत पकड़ है ! लेखन भाव तृप्त हो गया ...मन को और लेखन का प्रवाह मिला शुक्रिया ! 🙏🙏🙏
ReplyDeleteवाह सखी कान्हा के यन की व्याकुलता का सजीव चित्रण। सुंदर सृजन।
ReplyDeleteस्नेहिल आभार
Deleteवाह सखी कान्हा के मन की व्याकुलता का सजीव चित्रण। सुंदर सृजन।
ReplyDeleteवाह दीदी जी कन्हैया के भीगे नैनों के भावों को उनकी व्यकुलता को बडी सुंदरता से प्रस्तुत किया आपने
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