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फेरा ( परिक्रमा )

उदया चल से
अस्ताचल तक
स्वर्ण सूर्य करे
फेरा गगन ।

नीला पथ
सिंदूरी आचमन
करे परिक्रमा
सुन चिरई शगुन ।

चक्र भ्रमण के
चले अनवरत
अष्ट भाव के
रख अश्व संग ।

रुके न पल भर
चले निरंतर
अकिंचन नही
प्रयास कंचन ।

यायावर सा
द्रुतपथ गामी
शनैः शनै:
पूरित कर लंघन ।

मलय पवन
शीतल अति चंचल
उष्ण स्वेद बिन्दु
से सिंचित ।

चहुदिशा
हुंकारे प्रति पल
चलित भाव
रुकना नही सम्भव ।

कर्मरथ
हो आरुढ़ित
सम भाव मन
सारथी चुने ।

डा इन्दिरा ✍️

Comments

  1. बहुत सुंदर चित्रण सृष्टि की इस चिर परिक्रमा की!! बधाई और आभार!!!

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  2. बहुत सुंदर कविता। परिक्रमा पर आपने सृष्टि की अनवरत गति को बहुत सुंदर शब्दों में चित्रित किया है।
    सादर

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर रचना
    लाजवाब शब्द चयन
    बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर निरबाध गति और कर्मशीलता का सुंदर वर्णन सूर्य परिक्रमा द्वारा।
    अप्रतिम रचना

    ReplyDelete
  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १२ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर परिक्रमा...
    वाह!!!

    ReplyDelete
  7. वाह!!!!!बहुत सुंंदर ।

    ReplyDelete
  8. कर्मरथ
    हो आरुढ़ित
    सम भाव मन
    सारथी चुने ।--------- सुंदर शब्द , सुंदर सृजन प्रिय इंदिरा जी |

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