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Showing posts from February, 2020

वीर बहुटि नन्ही बालिका चम्पा

वीर बहुटि महारणा प्रताप की बेटी चम्पा ✊ राणा लेकर परिजनो को वन वन भटक रहे थे संधि मंजूर नहीँ मुगलों से वनवास काट रहे थे । जंगल जंगल फिरते थे भूखे प्यासे चिंतित से घास की रोटी खाते झरने का पानी पीते । नन्ही बालिका चम्पा उम्र अभी कच्ची  थी राणा की प्यारी बेटी थी भाई कें संग खेलती थी । राणा का ही लहू बह रहा चम्पा की रग रग मेंं विचलित नहीँ होती थी तनि भी संकट काल  घड़ी मेंं । समझ विवशता पिता की नन्हे अमर को समझाती जंगल मैं क्यों फिरते हैं थी पूरी बात बताती । एक दिवस अतिथि आया राणा दुखी भोजन नहीँ कराया तुरन्त चम्पा ने घास की रोटी रख अतिथी का थल लगाया । भोली बालिका हँस कर बोली कल की रोटी हूँ लाई भाई कें लिये उठा कर रखी अब आप अरौगे ये भाई । कह चम्पा ने थाल उठा कर अतिथी को .पकड़ाया था देख कें राणा द्रवित हो गये आँखो मैं पानी आया था । सोचा राणा ने सन्धी  कर लू कागज तभी मंगाया हार मानता हूँ अकबर  से ये भाव तभी मन आया । देखा चम्पा ने द्रवित पिता को सिंहनी सी हुँकार उठी सन्धी नहीँ युद्ध करेगे कटार चाहिऐ मुझे अभी । वो कौन हैं जिसने छीन  लिया सब राज पाट हैं

वक़्त का खेल

वक़्त का खेल ही तो हैं नाजुक बदन सहेजने की जगह रौंदा गया जीवित पर डाला  गया तेजाब क्यों वक़्त का खेल ही तो हैं .... व्यभिचार बढ़ता गया व्याभिचारी बचता रहा मुकदमे तारीखें बदलते सब वकील जज वक़्त का खेल ही तो हैं .. दिन महीने सालों बीते बात वहीँ की वहीँ तिल भर ना आगे बढ़ी बात वक़्त का खेल ही तो हैं .... नाम  चेहरे बदलते रहे नारी वहीँ की वहीँ दहशत दहशतगर्दी वहीँ की वहीँ वक़्त का खेल ही तो हैं .... सीता अहिल्या पांचाली निर्भया पिंकी या प्रियंका अदभुत समन्वय हर बार नारी ही वक़्त का खेल ही तो हैं ... डॉ़ इन्दिरा  गुप्ता  यथार्थ

बिटिया दिवस

बिटिया दिवस जितनी संकुचित सोच हैं उतना अधिक दिखावा हैं बिटिया दिवस मनाते हैं हम नित जिसे कोख मेंं मारा हैं । नक्कारखाने मेंं तूती जैसी एक दिवस बिटिया का हैं बाकी साल उसे मारते कैसी अजब विडम्बना हैं । वंश वृध्दि का चाव बहुत हैं पर बेटी ना  केवल बेटा हो अरे नासमझ ये तों सोचो बेटी ना तों कैसे बेटा हो ॥ बहू सभी को सुघड़ चाहिऐ बेटी को कहते अभिशाप बेटी नही तो बहू कहाँ से धरा फाड़ प्रगटेगी आप । बेटी होती धरा स्वरूपा अंकुरित होय संपन्न करती बेटा बेटी एक बराबर पर ये व्याकरण याद नही होती । उठो बेटियों यज्ञ बनो अब शंखनाद का स्वर छेडो सहचरी नही अब आगे बढ़ रथ को स्वंय हांकना हाको  । कोमल गात सुकुमार नही तुम लोचन लाल रक्ताभ करो हाथ चूड़ियाँ ज्वाला जैसी श्वास श्वास मेंं आग भरो । पायल बिछिया झूमर टंनका ये सब श्रृंगार तुम्हारा हैं नर भक्शी का संहार करो पहला कर्तव्य तुम्हारा हैं । चारु चन्द्र सी कोमल काया चन्द्र हास सा मुखर सरल छूले तों रण चण्डी बन जा कांप उठे दुष्टों का दल । सदा अवज्ञा रही तुम्हारी त्रेता,  द्वापर , कलयुग मेंं सहने को कायरता समझा इस भूमी के हर नर ने