श्रृंगार  संगमरमर सा शफ्फाक और मरमरी बदन  कंचन, कनक, कमीनी , या भीगा हुआ कमल ॥  झूल्फे झटक के बूंदें कुछ इस तरह गिरी  शबनम गिरी हो अर्श से या मोती की कोई फसल ॥  कांधे पे उनके झूलती वो काली घनी लटें  लगता था जैसे महक रहा कहीं कोई संदल ॥  गज गामिनी सी चाल है पायल बजे कमाल  लफ्जों मैं ढल के लिख रहा जैसे कोई ग़जल ॥  डॉ़ इन्दिरा  गुप्ता  यथार्थ 
कुन्ती का सन्ताप ... भोर हुई लो रैन गईं अब  रवि कर छवि नभ में छाई  मन क्लांत सिन्धु तट माही  कुन्ती बैठीं सकुचाई ।  सूना सा तट मन है मरघट  खग उड़ के नभ शोर करे  भय  से भरा हुआ मेरा मन  अब भारी अफसोस करे ,  यहीं बहा दिया शिशु मेंने  सोच आँख भी भर आई  मन  क्लांत सिन्धु तट माही  कुन्ती बैठीं सकुचाई ।  सूनी नाव वस्त्र कछु मैले  खाली हाथ रोना जारी  कहाँ गया होगा बह कर  कुन्ती मन चिन्ता भारी ,  में निष्ठा माँ की ना जानी  भोले पन में ठगी गईं  मन क्लांत सिन्धु तट माही  कुन्ती बैठीं सकुचाई ।  नारी मन मातृ सुख दाता  कैसे तृण सा टूट गया  कहाँ गया नव राग भाव वो  लोक लाज खा गईं हया ,  मुख पर हाथ ढांप कर बैठीं  बन कर नीर बही जाई  मन क्लांत सिन्धु तट माही  कुन्ती बैठीं सकुचाई ॥  डॉ़ इन्दिरा  गुप्ता  यथार्थ