नव गीत
मन की पीड़ा
मन की पीड़ा रोज पिघलती
छोड़े मोम निशान
काले कपड़े पहन सिसकता
अबला का अपमान ।
पिंजरे मेंं बन्द सोन चिरय्या
पंख कटे पाँव बेड़ी
देहरी का किवाड़ बन्द सा
नजर रहे सदा टेडी ।
दोयम रही सदा जीवन भर
ना होती पहचान
काले कपड़े पहन सिसकता
अबला का अपमान ॥
पाथर संग पिसे बराबर
चाकी जैसा हाल
परित्यक्त और विधवा हो तो
जीना हुआ मुहाल
कुण्ठित भाव उपेक्षित नारी
जीवन है शमशान
काले कपड़े पहन सिसकता
अबला का अपमान ॥
कदम कदम तिरिस्कार है
हर पल है टकराव
काला रंग रुदाली जीवन
खो जाते सब चाव
उठो नारी अब नहीँ टूटना
रोना नहीँ निदान
काले कपड़े पहन सिसकना
अबला का अपमान ॥
उठ खड़ी हो पंख झाड़ ले
गूँजे एक ललकार
ले परवाज तोल हौसले
बन जा तू तलवार
ना आधी पूरी दुनियाँ तेरी
तेरा स्वाभिमान
काले कपड़े पहन सिसकता
अबला का अपमान ॥
तू ही वक्ता तू ही श्रोता पुस्तक
तू ही किताब
उठ हिसाब मेंं लिख दे
एक नया खिताब
पीछे मुड़ कर नहीँ देखना
रख थोड़ा रूआब
काले कपड़े पहन सिसकता
अबला का अपमान ॥
डॉ़ इन्दिरा गुप्ता "यथार्थ "
स्व रचित
नारी की पीङा को क्या खूबसूरत से उकेरा है आपने 🙏
ReplyDeleteसादर आभार संगीता जी
Deleteसादर आभार संगीता जी
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