अस्तित्व 🍃 अस्तित्व कहाँ तन का रहा अब केवल परछाई है हवस मिटाने वाले तन मैं बदनीयत की बादशाही है ! यहाँ वहाँ सिर्फ पाप व्याप्त है अस्तित्व मैं रहना अभिशाप है ऊज्वल्ता बनी स्वयं शाप है मर्मान्तक पीड़ा का राज है ! तू इतना तो मैं क्या कम हूँ तुझसे अधिक मैं अधम हूँ छूत रोग सा अहम बना है मैं ही मैं बस मैं ही मैं हूँ ! अस्तित्व का तो विलय हो गया गंदे नाले का पर्याय हो गया निष्कलंक अस्तित्व कहाँ अब उसका तो इंतकाल हो गया ! अफसोस हो रहा है मन को खाली सा शब्द कोष हुआ अस्तित्व के खातिर जीते मरते अनमोल भाव वो गौण हुआ ! डा इन्दिरा ✍