कुन्ती का सन्ताप ...
भोर हुई लो रैन गईं अब
रवि कर छवि नभ में छाई
मन क्लांत सिन्धु तट माही
कुन्ती बैठीं सकुचाई ।
सूना सा तट मन है मरघट
खग उड़ के नभ शोर करे
भय से भरा हुआ मेरा मन
अब भारी अफसोस करे ,
यहीं बहा दिया शिशु मेंने
सोच आँख भी भर आई
मन क्लांत सिन्धु तट माही
कुन्ती बैठीं सकुचाई ।
सूनी नाव वस्त्र कछु मैले
खाली हाथ रोना जारी
कहाँ गया होगा बह कर
कुन्ती मन चिन्ता भारी ,
में निष्ठा माँ की ना जानी
भोले पन में ठगी गईं
मन क्लांत सिन्धु तट माही
कुन्ती बैठीं सकुचाई ।
नारी मन मातृ सुख दाता
कैसे तृण सा टूट गया
कहाँ गया नव राग भाव वो
लोक लाज खा गईं हया ,
मुख पर हाथ ढांप कर बैठीं
बन कर नीर बही जाई
मन क्लांत सिन्धु तट माही
कुन्ती बैठीं सकुचाई ॥
डॉ़ इन्दिरा गुप्ता यथार्थ
वाह!
ReplyDeleteआदरणीया दीदी जी आपको और आपकी लेखनी को कोटिशः नमन। कितनी सहजता से कुंती माता के मनोभाब को आपने शब्दों में पिरोया।
अद्भुत 👌
आदरणीय इंदिरा जी, एक अरसे बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ वो भी मेरे ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी के जरिये | | बहुत समय पहले आपसे आग्रह किया था फ़ॉलो का विकल्प लगाएं अपने ब्लॉग पर | अब फिर से निवेदन है आप ये विकल्प जरुर लगाएं | आपके ब्लॉग को फ़ॉलो करने के बाद मुझे आपकी भावपूर्ण रचनाओं से वंचित नहीं रहना पढेगा | दूसरे पाठक भी लाभान्वित होंगे सादर प्रणाम और शुभकामनाएं
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ReplyDeleteएक माँ को अपने शिशु को जलप्रवाहित करना कितना भयावह लगा होगा और कितनी ग्लानी हुई होगी --एक नारी को , एक माँ को ! ममत्व का गला घोंट लोकलाज से भरी एक भावुक नारी की व्यथा -कथा मन को छू गयी | इंदिरा जी आपकी लेखनी ही ये लिखने में सक्षम है | सस्नेह शुभकामनाएं| आपके ब्लॉग पर आकर एक रूहानी एहसास हुआ
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