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उम्मीदों के तले सुलगना अब मुझको मंजूर नही

चूड़ी वाले कर मैं
अब तलवार उठानी है
सिंह नाद कर उठे सिंहनिया
वो ललकार लगानी है
नारी अब अबला कहलाये
ये मुझको मंजूर नही
उम्मीदों को राख बनाना
अब मुझको मंजूर नही ....

अब तक जुर्म बहुत सह लिया
बिना जुर्म अब सजा नही
शाश्वत मान ही मुझे चाहिए
सर्व सम्मत जो होय वही
केवल पुरुष प्रधान समाज हो
ये मुझको मंजूर नही
उम्मीदों को राख बनाना
अब मुझको मंजूर नही ........

सिंह से शावक को जनती हू
गर्जन वर्जन सिखलाती
फिर भी नारी पूरे समाज मैं
दोयम दर्जा ही पाती
अरिहंता केवल अब नर हो
ये मुझको मंजूर नही
उम्मीदों को राख बनाना
अब मुझको मंजूर नही ........

स्वर्णिम भविष्य इतिहास रचू मैं
बंद किवड़िया नही रहूं मैं
उम्मीदों की गठरी लेकर
कर्म विहीन सी नही जियूँ मैं
आधी दुनिया मैं  कहलाती
कर्म विमुख क्यो खड़ी रहूं मैं
चौके से आंगन तक चलना
चल के द्वारे पर रुक जाना
घुट घुट कर वही प्राण त्यागना
अब मुझको मंजूर नही
उम्मीदों को राख बनाना
अब मुझको मंजूर नही ........

ज्वालामुखी सी धधक रही मैं
दावानल चिंगारी हू
केवल कोमल भाव नही
मैं तलवार दुधारी हू
राख तले बस यूही सुलगना
अब मुझको मंजूर नही ।
उम्मीदों को राख बनाना
अब मुझको मंजूर नही ।।

डा इन्दिरा ✍️


Comments

  1. वाह!!आदरणीय इन्दिरा जी ,वाह!!क्या खूब !! बहुत हो गया रोना धोना ,जुल्मों को सहना
    नारी शक्ति जाग उठी है .....

    ReplyDelete
  2. वाह !!! क्या खूब उम्मीदें जलाई हैं।
    शब्दों में बड़ी गहराई है।
    लाजवाब रचना।

    ReplyDelete
  3. वाह मीता सम्पूर्ण आत्मा विश्वास जगाती अपने हक को पहचान देती ओजमय अप्रतिम रचना।

    ReplyDelete
  4. बहुत ही सुन्दर उम्मीद भरी रचना...
    नारी जागृत हो चुकी अब उसकी उम्मीदें अवश्य पूरी होंगी....
    लाजवाब प्रस्तुति
    वाह!!!

    ReplyDelete
  5. आदरणीय इंदिरा जी,
    आपकी लेखनी नारी जागृति का एक बिगुल है। जिसमें से हर बार एक नया स्वर फूटता है। प्रणाम है आपकी इस अद्भुत लेखनी को ।
    सादर ।

    ReplyDelete

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