गहन उदासी छलक रही है
पसरे से सन्नाटो से
कोई आये और निकाल ले
बहते मसि के धारो से ।
पन्ना पन्ना दरक रहा है
लफ्ज लफ्ज सिरहन बांधे
विस्मयकारी चीख गूँजती
खामोश रुके सन्नाटे से ।
उदास शाम छलकी जाए है
रूह-ए बज्म भी दरक गई
बिखरी सांसे रुक रुक देखे
शायद अब कोई आ जाये ।
चला चली का मेला हो गया
लो शाम छितराई है
आने वाला अब तक ना आया
जिस कारण बज्म सजाई है ।
डा इन्दिरा ,,✍️
बहुत ही सुंदर रचना। छलकी शाम और पसरा विरह का सन्नाटा नजरों के सामने घूम सा गया।
ReplyDeleteबधाई ऐसी सुंदर रचना के लिए।
आभार 🙏
Deleteवाह !!! बहुत लाजवाब रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
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