दो हाथ सिलते ही रहते
घर भर के एहसास सदा
कहीं उधड़ा कहीं खिसा सा
कही सिलाई निकली जाय ।
रेशमी ,सूती कभी मखमली
धागे एहसास के सब ले आये ।
एक एक कर बड़े जतन से
तुरपन बखिया करती जाय ।
पर ..
खुद के कटे फ़टे से दिल को
कभी नही सिलने वो पाय
फुर्सत कहाँ कब लेकर बैठे
अपने दिल को कब सहलाय
बस चाहत के शब्दों से ही
उस पर पैबंद लगाती जाय ।
फ़टी गुदड़ी जैसे दिल को
कैसे और कब तक सी पाय
पेशानी पर पड़ी लकीरे
एक एक कर बढ़ती जाय
पूरी उम्र तिरछी सी बखिया
एहसासों से करती जाय ।।
डा इन्दिरा ✍️
वाह्ह्ह्ह् खूब
ReplyDeleteआभार
Deleteआभार
Deleteफुर्सत कहाँ कब लेकर बैठे अपने दिल को कब सहलाय ...
ReplyDeleteबस चाहत के शब्दों से ही उस पर पैबंद लगाती जाय ।...
Gracefully written....
Deleteकाव्य की आत्मा तक पहुचने का आभार 🙏🌺
वाह !!! बहुत खूब ..सुंदर .. शानदार रचना
ReplyDeleteमन को छू गई .....अप्रतीम भाव
बूढ़ा इंतज़ार
ReplyDeleteउस टीन के छप्पर मैं
पथराई सी दो बूढी आंखें
एकटक नजरें सामने
दरवाजे को देख रही थी
चेहरे की चमक बता रही है
शायद यादों मैं खोई है
एक छोटा बिस्तर कोने में
सलीके से सजाया था
रहा नहीं गया पूछ ही लिया
अम्मा कहाँ खोई हो
थरथराते होटों से निकला
आज शायद मेरा गुल्लू आएगा
कई साल पहले कमाने गया था
बोला था "माई'' जल्द लौटूंगा
आह : .कलेजा चीर गए वो शब्द
जो उन बूढ़े होंठों से निकले।
वाहह!!!!बहुत सुन्दर ,आदरणीय इंदिरा जी ।
ReplyDeleteस्त्री के जीवन के हर अहसास की झलक देती हुई कविता । बेहतरीन रचना आदरणीया इंदिरा जी की कलम से!
ReplyDeleteफुर्सत कहाँ कब लेकर बैठे
ReplyDeleteअपने दिल को कब सहलाय
बस चाहत के शब्दों से ही
उस पर पैबंद लगाती जाय ।
फ़टी गुदड़ी जैसे दिल को
कैसे और कब तक सी पाय
शानदार अभिव्यक्ति......
वाह!!!
खुद के कटे फ़टे से दिल को
ReplyDeleteकभी नही सिलने वो पाय
फुर्सत कहाँ कब लेकर बैठे
अपने दिल को कब सहलाय -----------
प्रिय इंदिरा जी -- मन में करुणा जगाती रचना मर्मस्पर्शी चित्र के साथ एक अनदेखी पीड़ा का एहसास करा गयी | एहसास के बहाने बेहतरीन सृजन कहना चाहूंगी जो किसी प्रशंसा से परे लगा मुझे | फिर भी नमन है आपकी रचनात्मक प्रतिभा को ज|