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मसि

मसि ...

मसि बहती
हिय पन्नों पर
कहीं कम
कहीं ज्यादा !

पन्ना गीला
तो हो जाता
कहीं कम
कही ज्यादा !

मन भी
दुखा उम्र भर
कहीं कम
कही ज्यादा

सन्नाटा सा भी
पसरा है
कहीं कम
कही ज्यादा !

हाथ लकीरें
गहरी है
कही कम
कही ज्यादा !

ठोकर दिल ने
खाई निरंतर
कही कम
कही ज्यादा !

जाने कितने
मौसम आये
कही कम
कही ज्यादा !

जाने क्या क्या
लिखना चाहूँ
कही कम
कही ज्यादा !

मसि मेरी
सूखी रह जाती
कही कम
कही ज्यादा !

डा इन्दिरा .✍
स्व रचित

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