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कान्हा की पाती

कान्हा की पाती ....

सगरी मोपे दोष धरो हो
मैं मथुरा आके भूल गयो
बिसर गयो मोकू वृंदावन
मधुबन नाही याद रहो !
कभी नाही ये सोचो राधे
तुम सब साथ में यहाँ  इकलौ
कैसे आयो हूँगा छोड़ के
तुम सब का वो साथ सुहानौ  !
एक कदम आगे रखता था
दुई पीछे हो जाते थे
हिय मेरा छलनी होता था
नैन नीर भर आते थे !
जिस पेड़ तले बैठी हो राधे
मन उसी पेड़  पर टंगा हुआ
प्यासी है अतृप्त आत्मा
जैसे तैसे कर जी रहा !
हर गली हर चौबारा
नैनन में ही डोल रहा
मात यशोदा नंद बाबा का
लाड अब यहाँ कहाँ रहा !
विरह अग्नि में तपता हूँ
पर कर्म राह तो चलनी है
तुम तो रोकर व्यथा कहो
पर मुझको सहन ही करनी है !
जिसकी जैसी जहाँ चाकरी
वैसा ही अनुशासन है
नारायण का काम मिला तो
वैसा ही कठिन आचरण है !

डा इन्दिरा गुप्ता ✍
स्व रचित

Comments

  1. बहुत बहुत बहुत बहुत सुंदर बिटिया

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