बंजर सा मन .....
जीवन के इस उहां पोह में
मन बंजर हो जाये
दरक गई सुखी धरती
लफ्ज ना उगने पाये !
सायं सायं भावों का अंधड़
यादों को गर्माये
पिघल पिघल कर गिरे धरा पर
मन पिघला सा जाये !
अतृप्त मन तृप्त नहीं
कैसे सुकून की बात लिखूं
कैसे कलम मसि में बूढ़े
कैसे सूखे जज्बात लिखूं !
डा इन्दिरा गु्प्ता
स्व रचित
सही बात है,जब मौसम ही पतझड़ को हो तो कलम चाह कर भी खुशी की बजाय दर्द की ही बातें निकलती हैं
ReplyDeleteकुछ तो मौसम रूखा है
Deleteकुछ रूखे से लोग
लेखन तो महज भाव है
सुख रहे सम्बंध
सामायिक परिस्थितियों की प्रतिछाया लेखन में दृष्टि गोचर हो ही जाती है।
ReplyDeleteमृमस्पर्शी लेखन मीता ।
टन मन की सब जानन हारी
ReplyDeleteप्रिय बहुत हो सखी हमारी !