व्यथा ...
बार बार चाहा मेंने
मिलन पुनः कर डालूँ
अहं का सर झुका झुका कर
व्याकुल मन को समझा लू
आतुर मन को मना मना कर
पुनः निकट बैठा लू !
पर ......
नही तुम्हारा पुरुषत्व
कुछ भी तो समझ ना पाया
व्याकुल नारी का आकुल मन
कर खण्ड खण्ड विखराया
अहं के उथले छिछले दल दल से
तेरा मैं ...तनिक उबर ना पाया
त्रसित भाव त्रसित ही रह गये
तृष्ण भाव तेरा उल्लास
महिमामंडित सदा नर रहा
ना समझा सका नारी मन भाव ॥ ॥
डॉ इन्दिरा गुप्ता
स्व रचित
नही तुम्हारा पुरुषत्व
ReplyDeleteकुछ भी तो समझ ना पाया
व्याकुल नारी का आकुल मन
कर खण्ड खण्ड विखराया.. . ..बहुत सुन्दर
सादर