पंख
पँख बांध कर तोलते
तुम मेरे अरमान
दम हैं तो खोल दो बन्धन
भरने दो परवाज़ !
भरने दो परवाज़
स्वयं को सभ्य बनाओ
अहंकार भर जो करते हो
उस पर विचार कर जाओ !
पँख नोच कर घायल करते
टुकुर टुकुर सब देखा करते
सभा बीच तिरस्कृत करके
नारी पूज्य हैं ढोंग रचाते !
द्वापर , त्रेता , हो या कलयुग
यही रहे जज्बात
नारी तू केवल भोग्या हैं
तेरी यही रही औकात !
सतयुग में भी तों लोगो ने
मर्यादा दी थी त्याग
एक पुरुष के कहने भर से
नारी को दिया बनवास !
विदुषी अहिल्या ने सहा
पुरुष व्यभिचार का पाप
निरपराध मिला उन्ही को
पाथर होने का अभिशाप !
पर अब .......
बिना पँख परवाज़ भर
उठ खड़ी हो नार
जो भी आये रोकने
कस कर ठोकर मार !
खण्ड खण्ड करके रखदे
व्यभिचारी का उन्माद
खप्पर भर ले उसके रक्त से
जो भी करे अपमान !
शक्ति तू भक्ति हैं तू ही
तू ही हैं महाकाल
नव भाव जाग्रत हुई नारी
नर जाग सके तों जाग ॥
डॉ इन्दिरा गुप्ता
स्व रचित
विचारोत्तेजक.. बहुत सुंदर सृजन👌👌
ReplyDeleteबिना पँख परवाज़ भर
ReplyDeleteउठ खड़ी हो नार
जो भी आये रोकने
कस कर ठोकर मार ! ......बहुत ख़ूब
नारी शक्ति का अद्भुत उद्घोष प्रिय इंदिरा जी |अत्यंत जोशीली रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें और आभार | ये नारी के स्वाभिमान का मुखर स्वर है |
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