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समाज / नारी

समाज / नारी

पंख बांध कर तोलते
तुम मेरे अरमान
दम हैं तो खोलो ये बन्धन
भरने दो परवान !
भरने दो परवान
स्वयं को सभ्य बनाओ
नारी हूँ सृजन शील हूँ
ना मुझको चंडिका बनाओ !
पंख नोचते घायल करते
टुकुर टुकुर सब देखा करते
बीच सभा तिरस्कृत करते
नारी पूज्य हैं ढोंग रचाते !
द्वापर , त्रेता , हो या कलयुग
यही रहे जज्बात
नारी तू केवल भोग्या हैं
यही तेरी औकात !
सतयुग मेंं भी तो लोगो ने
मर्यादा दी थी त्याग
एक पुरुष के कहने भर से
नारी को दिया बनवास !
विदुषी अहिल्या ने पाया
पुरुष व्यभिचार का शाप
निरपराध सहा उसने
पाथर होने का भार !
देवी हैं तू त्याग की प्रतिमा
कह नारी को बहकाते
उसके ममत्व के भावो का
पर मोल नही समझ पाते !
अब ......
बिना पंख परवाज़ के
खड़ी हो गई नार
जो  भी आये रोकने
कब उससे रुक पाय !
खण्ड खण्ड करदे तू
उन्मादी का व्यभिचार
गर्व दमन कर पाखण्डी का
ना  खुद को अबला मान !
शक्ति तूही , भक्ति तू ही
तू ही हैं महाकाल
ले नव भाव खड़ी हैं नारी
नर जान सके तो जान !

डॉ इन्दिरा गुप्ता 



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